Saturday, October 2, 2010

क्षुधा से बावला

रोटियाँ सेंकने को बैठे रह गए
चूल्हा है कि जला ही नही
अब क्या खायेंगे?
कमबख्तों ने लकड़ियाँ भी नहीं दी
अब आग कैसे जलाएंगे?
नही जलेगी आग,तब
मुर्गे कैसे भुने जायेंगे?
मुर्गों की तो छोड़ ही दो
कम से कम रोटियाँ तो पकने देते.
पिछली आग में सिंकी रोटियाँ
अब तक तो भूख मिटाती रही,
लेकिन अब भूख कैसे मिटायेंगे?
लकडियाँ कौन देगा ?
आग कैसे जलाएंगे ?
और अगर आग ना जली तो
फिर रोटी किधर पकाएंगे?
दोस्त,आग नहीं जली तो
हमारे खाने के लाले पड़ जायेंगे,
फिर कैसे लोगों की चेतना जगायेंगे?
मामला गंभीर है,सोचना पड़ेगा
ऐसे में एक उपाय दीखता है;
चलो खुद आग लगाते हैं
बुझे हुए चूल्हे को फिर से जलाते हैं
फिर अपनी रोटी खुद पकाएंगे
और मजे ले लेकर खायेंगे.
लेकिन प्रश्न यही रहा कि
लकड़ियाँ कहाँ से लायेंगे?
चलो इस बार पड़ोसी से ही मांग लें
वैसे भी उनके पास ढेर सारी लकड़ियाँ हैं
जिनसे वो डंडे भी बनाते हैं.
औरों को भी हड़काते हैं,
और अपनी रोटी आराम से खाते हैं.
जैसे भी हो चूल्हा जले
वरना भूख कैसे मिटायेंगे?
ऐसे कब तक भूख से बिलबिलायेंगे?
जो भी होता,चूल्हा जलता
तभी तो हमारी भूख मिटती.
और अगर चूल्हा नहीं जला
तो सबके घर झुलसा देंगे.

भला यह भी कोई बात हुई?

9 comments:

  1. Nice one Rahul...mast ba...!!!:-)

    ReplyDelete
  2. @sahil:bilkul marde :)thanx for liking it:)
    @ashish-thnx rahi.

    ReplyDelete
  3. रचना आपलोगों को पसंद आई,और अपना कीमती वक़्त निकल के आपने टिप्पणी दी,इसके लिए आप सब मित्रों का आभार.
    आशा है कि आपकी प्रेरणा से आगे और भी लिखता रहूँ.
    बहुत बहुत धन्यवाद

    ReplyDelete