लिख डालूँ एक नयी गाथा
वेद पुराण कुरान मिलाकर
रामायण का अंश भी ले लूं
सब धर्मो का क्षोभ मिटा दूं.
महाकलह से त्राण दिला दूं
काल के गाल न असमय कोई
जाये,उसको प्राण दिला दूं.
झुके नहीं जो रुके कभी न
ऐसा कुछ वरदान दिला दूं.
भाग्यविधाता को झुठलाकर
सबको अपना मान दिला दूं.
रची न जाये फिर महाभारत
ऐसा कुछ संधान दिला दूं.
घुट-घुट मरते लोकतंत्र में
थोड़ी सी भी जान दिला दूं
कलम मुझे दे ऐसी शक्ति
प्रजातंत्र से 'वंशवाद' का नाम मिटा दूं.
this blog contains a few aspects of my poetry.poetry helps me to stay calm in the worst of the situations
Saturday, December 12, 2009
Wednesday, December 2, 2009
सच का सपना
ना जाने मैं क्यूँ सोचता हूँ.
एक अधूरा सपना
जो कभी पूरा ना हुआ.
कमबख्त जग जाओ,सपना सपना ही है
जागोगे तो चिल्लाओगे
सोते रहने में ही भलाई है,
सबके हाथ मलाई है .
तुझे क्यों चिढ हो रही है
मुझे खाते देखकर.
औकात हो तो तू भी खा...
वरना चुपचाप
आँख मूँद और सो जा.
सोया रह तो बेहतर है
लात मरने में आसानी होगी
लात ना खाओ तुम,तो
हमें खाने को मिलेगा क्या?
सलाह है कि
सपने भी औकात में ही देखो .
वरना हम सपनो में ताले भी जड़ देते हैं
वैसा ही,जैसा घोटालों पे जड़ते हैं.
सुधर जाओ,चुप रहो.
तुम पैसा जुटाकर कर देते हो,
हम उसे चर लेते हैं.
तुम मुहँ से खाते हो
हम हर तरह से खाते हैं.
पैर तो हमारे भी दो हैं ......
पर हम तुम्हारी तरह सोचते नही हैं.
सोच अभी ड्यूटी-फ्री है
पर पेटेंट करा लेना
सोच पे पाबंदी नही है,
क्यूंकि मेरा उससे कुछ नही जाता
तो या तो..जागो और चिल्लाओ
वरना दुम दबा के सो जाओ..
और अच्छा लगे तो
तुम भी खाओ.
एक अधूरा सपना
जो कभी पूरा ना हुआ.
कमबख्त जग जाओ,सपना सपना ही है
जागोगे तो चिल्लाओगे
सोते रहने में ही भलाई है,
सबके हाथ मलाई है .
तुझे क्यों चिढ हो रही है
मुझे खाते देखकर.
औकात हो तो तू भी खा...
वरना चुपचाप
आँख मूँद और सो जा.
सोया रह तो बेहतर है
लात मरने में आसानी होगी
लात ना खाओ तुम,तो
हमें खाने को मिलेगा क्या?
सलाह है कि
सपने भी औकात में ही देखो .
वरना हम सपनो में ताले भी जड़ देते हैं
वैसा ही,जैसा घोटालों पे जड़ते हैं.
सुधर जाओ,चुप रहो.
तुम पैसा जुटाकर कर देते हो,
हम उसे चर लेते हैं.
तुम मुहँ से खाते हो
हम हर तरह से खाते हैं.
पैर तो हमारे भी दो हैं ......
पर हम तुम्हारी तरह सोचते नही हैं.
सोच अभी ड्यूटी-फ्री है
पर पेटेंट करा लेना
सोच पे पाबंदी नही है,
क्यूंकि मेरा उससे कुछ नही जाता
तो या तो..जागो और चिल्लाओ
वरना दुम दबा के सो जाओ..
और अच्छा लगे तो
तुम भी खाओ.
Tuesday, November 3, 2009
क्यूँ
घर लौटना अच्छा होता है.
जब ये पता हो के
न मैं,न ही वो
उदास होंगे घर आते हुए.
रास्ते भर बगले झांकते..
सन्नाटे में सकपकाते.
एक मजबूरी की मुस्कान चिपकाये .
वरना अब तो
घर में छुप बैठना पड़ता है.
छत गिरने का नहीं...
साए के उठ जाने का डर है ..
रोटी तो हम कमा लेंगे...
पर बोटियों का क्या भरोसा.
जब तक खुद लड़ना नहीं जान पायेगी,
बकरे की अम्मा कब तक खैर मनाएगी?
जब ये पता हो के
न मैं,न ही वो
उदास होंगे घर आते हुए.
रास्ते भर बगले झांकते..
सन्नाटे में सकपकाते.
एक मजबूरी की मुस्कान चिपकाये .
वरना अब तो
घर में छुप बैठना पड़ता है.
छत गिरने का नहीं...
साए के उठ जाने का डर है ..
रोटी तो हम कमा लेंगे...
पर बोटियों का क्या भरोसा.
जब तक खुद लड़ना नहीं जान पायेगी,
बकरे की अम्मा कब तक खैर मनाएगी?
Tuesday, February 24, 2009
अनकही

उनको ये शिकायत है.. मैं बेवफ़ाई पे नही लिखता,
और मैं सोचता हूँ कि मैं उनकी रुसवाई पे नही लिखता.'
'ख़ुद अपने से ज़्यादा बुरा, ज़माने में कौन है ??
मैं इसलिए औरों की.. बुराई पे नही लिखता.'
'कुछ तो आदत से मज़बूर हैं और कुछ फ़ितरतों की पसंद है ,
ज़ख़्म कितने भी गहरे हों?? मैं उनकी दुहाई पे नही लिखता.'
'दुनिया का क्या है हर हाल में, इल्ज़ाम लगाती है,
वरना क्या बात?? कि मैं कुछ अपनी.. सफ़ाई पे नही लिखता.'
'शान-ए-अमीरी पे करू कुछ अर्ज़.. मगर एक रुकावट है,
मेरे उसूल, मैं गुनाहों की.. कमाई पे नही लिखता.'
'उसकी ताक़त का नशा.. "मंत्र और कलमे" में बराबर है !!
मेरे दोस्तों!! मैं मज़हब की, लड़ाई पे नही लिखता.'
'समंदर को परखने का मेरा, नज़रिया ही अलग है यारों!!
मिज़ाज़ों पे लिखता हूँ मैं उसकी.. गहराई पे नही लिखता.'
'पराए दर्द को , मैं ग़ज़लों में महसूस करता हूँ ,
ये सच है मैं शज़र से फल की, जुदाई पे नही लिखता.'
'तजुर्बा तेरी मोहब्बत का'.. ना लिखने की वजह बस ये!!
क़ि 'शायर' इश्क़ में ख़ुद अपनी, तबाही पे नही लिखता...!!!"
पतन

मैं गिरा,गिरने लगा
गिरता रहा,गिरता गया
किस हद तक गिरा?
क्या पता .
उनसे पूछो
जिसने मुझे गिरते देखा था
पर मैं तो खुद उठ के चल पड़ा
उठते ही जनाब मिल गए
और पूछ ही डाला
'अरे तू तो गिरता हुआ था
आज अचानक उठ कैसे गया?
आराम कर,चोट गहरी है .
पता नहीं
मेरे संभलने से उन्हें तकलीफ क्यों है?
उन्होंने कहा
तू गिरा था
नीचे ही पड़ा रह
वरना किसी को
तेरे गिरने का पता ही नहीं लगेगा.
मैं खडा रहा
उनसे देखा न गया.
टांग मार के फिर गिरा ही डाला .
मैं फिर उठने की कोशिश में लग गया.
और वो मुझे फिर गिराने लगे
शंका होती है,
या यूँ कहें विश्वास है
सोचता हूँ,क्या मैं सच में गिर गया था?
या खुद वे ही गिरे हुए हैं?
पता चला,मेरे संभलते ही वे खुद गिर पड़े थे
अब मैं उन्हें उठाने में लगा हूँ .
एकाकी
अकेला चना भाड़ नहीं फोड़ता
पर जंगल में
एक सिंह ही
सब पर
शासन करता है
एक म्यान में दो तलवारे नहीं होती
क्यूंकि ,अकेले भी
एक तलवार का भी
अपना रुतबा है,शान है;
भीड़ में कितना भी खोता
पर
अकेला शव भी
अपनी पहचान नहीं छोड़ता .
पर जंगल में
एक सिंह ही
सब पर
शासन करता है
एक म्यान में दो तलवारे नहीं होती
क्यूंकि ,अकेले भी
एक तलवार का भी
अपना रुतबा है,शान है;
भीड़ में कितना भी खोता
पर
अकेला शव भी
अपनी पहचान नहीं छोड़ता .
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